इबादत का मफहूम ( मतलब ) क्या है

क़ुरान में अल्लाह फरमाता है.
मैने जिन्नात और इंसानो को सिर्फ़ इस लिए पैदा किया है के वो सिर्फ़ मेरी इबादत करे.
क़ुरान (सुरा ज़रियत 51/56)

इबादत ऐसा जामे लफ्ज़ है जो उन तमाम ज़ाहिरी(दिखने वाले) और बातिनी (दिली) अक्वाल व आमाल पर बोला जाता है
जिन्हे अल्लाह ताआला पसंद करता है और जिन से राज़ी होता है
जैसे नमाज़, ज़कात, रोज़ा, हज, सच बात कहना, अमानतदारी करना, वालदेन से हस्न सलूक (अच्छाई), रिस्ते जोड़ना, लोगो को नेकी की तरफ बुलाना और बुराई से रोकना
दुआ व ज़िक्र, तिलावते क़ुरान और इस जैसी दीगर इबादत करना,

जिंदगी का हर काम जो दिन के मुताबिक़ हो इबादत का मफहूम में शामिल है
यानी इबादत सिर्फ़ नमाज़, रोज़ा, हज वगेरह का ही नाम नही है बल्के चलना फिरना, उठना बैठना, सोना जागना, खाना पीना, मिलना जुलना, बोलना चलना, खरीदना बैचना
अल्गर्ज जिंदगी का कोई भी काम अगर अल्लाह के हुक़्म के मुताबिक किया जाए तो वो इबादत ही है.
क्यूंकी इसी को अल्लाह पसंद करता है और राज़ी होता है और इंसान की जिंदगी का मक़सद भी यही है.
और हर बुरी बात झूठ, झूठी शान शोकत, हराम माल दोलत, दिखावा, नफसी बुराई से बचना भी इबादत और सवाब का काम है.


वरना महज मुस्लिम मुल्क में पैदाइश, इस्लामी नाम और ज़बान से कलमा पढ़ लेना कामयाबी और जन्नत की जमानत नही है.

अल्लाह हमे हक़ बात समझने की तोफीक अता फरमाये
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